बृहदारण्यक उपनिषद् २.४.१२

 


जैसे जल में डाला हुआ नमक का टुकड़ा जल में ही घुल मिल जाता है, उसे किसी भी प्रकार जल से प्रथक नहीं निकाला जा सकता। चाहे जहाँ से भी जल लिया जाए वह नमकीन ही जान पड़ता है, हे मैत्रेयी! उसी प्रकार यह परमात्मत्तत्त्व अनन्त; अपार और विज्ञानघन ही हैं। 


यह(स्वयं) इन भूतों से प्रकट होकर, इन्ही के साथ नाश को प्राप्त हो जाता है। देह-इन्द्रिय भाव से मुक्त होने पर इसकी कोई विशेष संज्ञा नहीं रहती। हे मैत्रेयी! ऐसा मैं तुझसे कहता हूँ - ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा। 


– बृहदारण्यक उपनिषद् २.४.१२


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As a lump of salt dropped into water dissolves with (its component) water, and no one is able to pick it up, but from wheresoever one takes it, it tastes salt, even so, my dear, this great, endless, infinite Reality is but Pure Intelligence.


The Self comes out as a separate entity from these elements, and this separateness is destroyed with them. After attaining this oneness it has no more consciousness. This is what I say, my dear. So said Yajnavalkya.


– Brihadranyaka Upanishad 2.4.12

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