भोग - वैराग्य शतक | भर्तृहरी


भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता।
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः॥
कालो न यातो वयमेव याता।
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥


हमारे द्वारा विषयों का भोग नहीं हुआ बल्कि हम ही विषयों के द्वारा भोगे गए(विषयों का भोग करने की इच्छा के कारण)। 
हम तपस्या से नहीं तपे (हम तपस्या नहीं कर पाए) बल्कि हम ही दु:खों के ताप (त्रिविध ताप) से संतप्त हो गए। 
भोगों में आसक्त रहते हुए काल नहीं बीता बल्कि हम ही बीत गए(काल कवलित हो गए) । 
हमारी (विषयों की) तृष्णाएँ किञ्चित भी बूढ़ी नहीं हुईं अपितु हम ही तृष्णा के वशीभूत होकर जराजीर्ण हो गए।


~ वैराग्य शतक (भर्तृहरि) 


bhogā na bhuktā vayam eva bhuktāḥ
tapo na taptaṁ vayam eva taptāḥ |
kālo na yāto vayam eva yātās
tṛṣṇā na jīrṇā vayam eva jīrṇāḥ ||

We have not enjoyed mundane pleasures, but ourselves have been devoured by desires. 
We have not performed austeriries, but got scorched ourselves,
time is not gone but we approach the end. 
Nevertheless desires do not wear out, only we ourselves are struck down by senility.

Vairāgya-śatakam of Bhartṛhari
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